



अंता विधानसभा उपचुनाव में मिली हार के बाद भाजपा के भीतर टिकट चयन और चुनाव प्रबंधन को लेकर मची अंदरूनी खींचतान स्पष्ट रूप से सामने आ गई है। इस सीट पर उम्मीदवार घोषित करने में पार्टी ने काफी देर की, जिसके कारण राजनीतिक गलियारों में तरह-तरह के कयास लगाए गए। पार्टी के वरिष्ठ नेताओं का कहना है कि मोरपाल सुमन पहली पसंद नहीं थे। सूत्र बताते हैं कि पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे शुरुआत से ही पूर्व विधायक कंवरलाल मीणा की पत्नी को टिकट दिलवाना चाहती थीं, लेकिन परिवारवाद का मुद्दा उठने पर इस प्रस्ताव को छोड़ना पड़ा।
इसके बाद 2013 में अंता से विधायक रहे प्रभुलाल सैनी के नाम पर भी चर्चा हुई, मगर पार्टी में सहमति नहीं बनी। अंततः स्थानीय नेता मोरपाल सुमन को उम्मीदवार बनाया गया। शुरुआती असमंजस दूर होते ही वसुंधरा राजे स्वयं चुनावी मैदान में उतरीं और मोरपाल के साथ पूरे जोश के साथ प्रचार किया। मोरपाल भी राजे के करीबी माने जाते हैं, इसलिए पूरा कैंपेन राजे की प्रतिष्ठा से सीधे तौर पर जुड़ गया।

अंता सीट पर चुनाव प्रभारी पूर्व मुख्यमंत्री राजे के बेटे और सांसद दुष्यंत सिंह को बनाया गया था। राजे, दुष्यंत और मुख्यमंत्री भजनलाल शर्मा ने संयुक्त रूप से कई सभाएं कीं। चुनाव प्रचार के दौरान यह भी माना जाने लगा कि यह चुनाव मोरपाल से अधिक राजे की प्रतिष्ठा का मुद्दा बन गया है। भले ही शीर्ष नेतृत्व ने पूरी ताकत झोंकी, लेकिन जनता का समर्थन उम्मीद के मुताबिक नहीं मिला और भाजपा हार गई।
सबसे बड़ा सवाल यह उठ रहा है कि पार्टी ने ही अपने ही दो प्रभावी स्थानीय नेताओं शिक्षा मंत्री मदन दिलावर,कृषि मंत्री डॉ. किरोडी लाल मीणा और ऊर्जा राज्यमंत्री हीरालाल नागरको प्रचार से दूर क्यों रखा। दोनों नेता बारां जिले के ही रहने वाले हैं और अंता व आसपास के ग्रामीण क्षेत्रों में उनकी गहरी पकड़ मानी जाती है। बताया जा रहा है कि दोनों नेता हाड़ौती क्षेत्र के दूसरे धड़े के करीब माने जाते हैं, जिसके चलते उन्हें चुनावी मंचों से दूरी बनाए रखने को कहा गया।
स्थानीय कार्यकर्ताओं और गांवों में इस बात की चर्चा पूरे चुनाव अभियान के दौरान रही कि भाजपा ने अपने ही प्रभावी हाड़ौती नेताओं को नजर अंदाज कर बाहरी नेतृत्व पर अत्यधिक निर्भरता दिखा दी। यही वजह रही कि अंता उपचुनाव में पार्टी की रणनीति कमजोर दिखी और स्थानीय नेतृत्व की अनुपस्थिति ने परिणामों पर गहरा असर डाला।